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n. (सो. काश्य.) काशी देश का राजा, एवं ‘अष्टांग’ आयुर्वेदशास्त्र का प्रवर्तक । यह काशी देश के धन्व (धर्म) राजा पुत्र एवं दीर्घतपस् राजा की वंशज था । विष्णु भगवान् के आशीर्वाद से, समुद्रमंथन से उत्पन्न धन्वन्तरि नामक विष्णु के अवतार ने पृथ्वी पर पुनर्जन्म लिया । वही पुनरावतार यह था (धन्वन्तरि १. देखिये) । दूसरे युगपर्याय में से द्वापर युग में, काशिराज धन्व ने पुत्र के लिये, तपस्या एवं अब्जदेव की आराधना की । अब्जदेव ने धन्व के घर स्वयं अवतार लिया । गर्भ में से ही अणिमादि सिद्धियॉं इसे प्राप्त हो गयी थी । भारद्वाज ऋषि से इसने भिषक् क्रिया के साथ आयुर्वेद सीख लिया, एवं अपने प्रजा को रोगमुक्त किया । उस महान् कार्य के लिये, इसे देवत्व प्राप्त हो गया । इसने आयुर्वेदशास्त्र ‘अष्टांगों’ (आठ विभाग) में विभक्त किया । वे विभाग इस प्रकार हैः--१. काय (शरीरशास्त्र), २. बाल (बालरोग), ३. ग्र (भूतप्रेतादि विकार), ४. उर्ध्वाग (शिरोनेत्रादि विकार), ५. शल्य (शस्त्राघातादि विकार), ६. दंष्ट्रा (विषचिकित्सा), ७. जरा (रसायन), ८. वृष (वाजीकरण) [ह.वं.२९.२०] । इसे केतु नामक पुत्र था [ब्रह्म.१३.६५];[ वायु.९.२२,९२];[ ब्रह्मांड.३.६७.];[ दे.भा.९.४१] । सुविख्यात आयुर्वेदाचार्य धन्वन्तरि दिवोदास इसका पौत्र वा प्रपौत्र था । उसके सिवा, इसके परंपरा के भेल, पालकाप्य आदि भिषग्वर भी ‘धन्वन्तरि’ नाम से ही संबोधित किये जाते है । विक्रमादित्य के नौ रत्नों में भी धन्वन्तरि नामक एक भिषग्वर था । धन्वन्तरि-मनसा युद्ध n. सर्पदेवता मनसा तथा वैद्यविद्यासंपन्न धन्वन्तरि राजा के परस्परविरोध की एक कथा ब्रह्मवैवर्त पुराण कृष्णजन्मखंड में दी गयी है । एक दिन, धन्वन्तरि अपने शिष्यों के साथ कैलास की ओर जा रहा था । मार्ग में तक्षक सर्प अपने विषारी फूत्कार डालते हुए, इन पर दौडा । शिष्यों में से एक को औषधि मालूम होने के कारण, बडे ही अभिमान से वह आगे बढा । उसने तक्षक को पकड कर, उसके सिर का मणि निकाल कर, जमीन पर फेंक दिया । यह वार्ता सर्पराज वासुकि को ज्ञात हुई । उसने हजारों विषारी सर्प द्रोण, कालीय कर्कोट, पुंडरिक तथा धनंजय के नेतृत्व में भेजे । उनके श्वासोच्छवास के द्वारा बाहर आई विषारी वायु से, धन्वन्तरि के शिष्य मूर्च्छित हो गये । धन्वन्तरि ने, वनस्पतिजन्य औषध से उन्हें सावधान कर के, उन सर्पो कों अचेत किया । वासुकि को यह ज्ञात हुआ । उसने शिवशिष्य मनसा को भेजा । मनसा तथा गढूर शिवभक्त थे । धन्वन्तरि, गढूर का अनुयायी था । जहॉं धन्वन्तरि था, वहॉं मनसा आई । उसने धन्वन्तरी के सब शिष्यों को अचेत कर दिया । इस समय स्वयं धन्वन्तरि भी, शिष्यों को सावधान न कर सका । मनसा ने स्वयं धन्वन्तरि को भी, मंत्रतंत्र से अपाय करने का प्रयत्न किया । किंतु वह असफल रही । तब शिव द्वारा दिया गया ब्रह्म वहॉं आये । उन्होंने वह झगडा मिटाया । अंत में मनसा तथा धन्वन्तरि ने एक दूसरे की पूजा की । उसके बाद सब सर्प, देव, मनसा तथा धन्वन्तरि, अपने स्थान खाना हुएँ [ब्रह्मवै. कृष्ण. १.५१] । धन्वन्तरि के ग्रंथ n. धन्वन्तरि के नाम पर निम्नलिखित ग्रंथ प्रसिद्ध हैं---१. चिकित्सातत्त्व विज्ञान, २. चिकित्सादर्शन, ३. चिकित्साकौमुदी, ४. अर्जीर्णामृतमंजरी, ५. रोगनिदान, ६. वैद्यचिंतामणि, ७. वैद्य प्रकाश चिकित्सा, ८. विद्याप्रकाशचिकित्सा, ९. धन्वन्तरीय निघंटु, १०. चिकित्सासारसंग्रह, ११. भास्करसंहिता का चिकित्सातत्त्व विज्ञानतंत्र, १२. धातुकल्प, १३. वैद्यक स्वरोदय [ब्रह्मवै.२.१६] । इनके सिवा, इसने वृक्षायुर्वेद, अश्वायुवेंद तथा गजायुर्वेद का भी निर्माण किया था [अग्नि.२८२] ।
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